मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

नागपुरी कविता - ई साल बेमिसाल है होली मनऊ अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता - ई साल बेमिसाल है होली मनऊ 
अशोक "प्रवृद्ध"



ई साल बेमिसाल है होली मनऊ 
सबे केऊ फटेहाल हैं होली मनऊ 
रोमकन्या कर मनमोहनी हॅंसी कन्दुवाये के राईख देलक 
सौ रुपिया किलो दाईल है होली मनऊ 


कुर्सी महल सब पवार कर हिस्सा में है संगी 
अपनले पुआल है होलीमनऊ 
घर में नखे चीनी तो पेडूकिया [गुझिया] मईत खऊ 
अफसरकर घर में माल है होली मनऊ 

रंगों में घोटाला है मिलावट है अबीर में
मौसम भी ई दलाल है होली मनऊ 
हाथ में लेऊ अबीर "प्रवृद्ध" ना बैठू
घर में भले बऊवाल है  होली मनऊ 

राहुल भी अमीना हसीब संघे हैं होली मनायेक मूड में
सादा खाली एगो गाल है होली मनऊ 
जनता का गतर (शरीर) होय गेलक नीला तो का होलक 
सत्ता कर चेहरा तो लाल है होली मनऊ 

किस्मत में लंगटा (नंगा ) गतर लेके मरथयं किसान 
मस्ती में लेखपाल है होली मनऊ 
पी के भांग (भंग) सुतल आहयं संसद - विधायिका
अपन केके खयाल है होली मनऊ 

बहुमत कर जोगाड़ कईरके मस्त हैं सोरेन बाबू विरोधी हैं हरऊवाँ
हाथ आऊर तीर - धनुष कर ई सब कमाल है होली मनऊ 
कईसन है इन्कलाब कोनो शुनगुन (शोर) तक नखे 
मिन्झथे (बुझती हुई) मशाल है होली मनऊ 

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

नागपुरी कविता - फागुन में दुआरी होलक गोतिया हैं रसराज- अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता - फागुन में दुआरी होलक गोतिया हैं रसराज
अशोक "प्रवृद्ध"

फागुन में दुआरी होलक गोतिया हैं रसराज
गंध रंगीली उड़थे फिन [फिर] साँस पर आज।

सात रंग कर शरीर होलक  इतना उड़लक गुलाल
नीला हरियर नदी होलक  झील होय गेलक लाल।

पीयर रंग सरसों खिललक पीयर खिललक गुलाब
केसरिया रंग धूप होय गेलक टेसू चढ़लक शबाब।

होलक जुगलबंदी सुघर बाजथे  बाजूबंद
कंठ-कंठ गुंजित होलक "प्रवृद्ध" कर छंद ।

एक एक मुस्कान में आईज मुरूनगुर कर  दुआर
कुंकुम आउर अबीर संग बरसथे रस कर धार।



शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

नागपुरी कविता - चाँदनी छिटकल है ,फिर भी मोर मन खामोश है। - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता - चाँदनी छिटकल है ,फिर भी मोर मन खामोश है।
अशोक "प्रवृद्ध"

चाँदनी छिटकल है ,फिर भी मोर मन खामोश है।
बेखबर ई राईत में सारा संसार मदहोश है।

वक्त आगे भागथे,लागथे जईम जाहे कदम,
हाँ, सहारा देवथे मोर तन्हाई कर आगोश है।

हँसथे चेहरा मोर , तोयं  तो बस एतने जानीस ,
कालेकि गम दिल संगे छातिये में परदापोश है।

माँगते मोयं रईह गेलों, देई दे बहार तनी मोखों ,
अनसुना कईरके बईढ गेले , इकर बड़ा आक्रोश है।

अब कहाँ रौनक बांचलक , "प्रवृद्ध" खुशी - उमंग कर हियाँ ?
घटथे साँस संगे धड़कन कर  पल-पल जोश है।


शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

नागपुरी कविता - सच कर डहर - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता - सच कर डहर
अशोक "प्रवृद्ध"

सच कर डहर
कहयनां कि बडा
काँटा से भरल होवेला
सच कर डहर ।

लेकिन
अनुभव तो ई है कि
सच कर डहर हर - हमेशा
मनोहर - सुन्दर होवेला ।

हां बाधा मन तो निश्चित
अधिका आवी ।
लेकिन हौसला भी तो
आउर मनसे अधिक होवेला ।
संगी - साथी मन भी भले
संख्या में कम लागबयं
लेकिन होंबयं सच्चा आउर पक्का ।
सच कर डहर कर
संगी  ही
सच्चा साथी कहायला ।

तो संगी - साथी मन कहियो
एकला
ना अनुभव करब।
चाहे देवेक पड़ी
सैंकडों धांव
अग्निपरीक्षा ।

चाहे कोनो  धोबी कर
भूंकल से
क्रेक पड़ी घरी - घरी (बार बार)
वन कर गमन!

हे मोर सच कर डहर कर संगी - साथी मन
छोड़ब ना साथ
सच कर
तोड़ब ना व्रत
धर्म कर ।

रचनाकार - अशोक "प्रवृद्ध"