बुधवार, 29 जनवरी 2014

नागपुरी कविता - देश कर सुरक्षा में भी समझौता , ई स्वार्थ कर बात हके । - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता - देश कर सुरक्षा में भी समझौता , ई स्वार्थ कर बात हके ।
अशोक "प्रवृद्ध"

न हिन्दू कर बात हके , न मुसलमान कर बात हके ,
सीमा कर सुरक्षा पर खतरा , ई देश कर बात हके ।

कईट गेलयं ,मईर गेलयं वीर सैनिक मन सीमा पर ,
नेता मनक बयानबाजी , ई कुर्सी कर बात हके ।।

भर्ती नखयं सेना में , कोनो नेता कर बेटा ,
भेजयनां जोन माय आपन लाल के , ई जज्बात कर बात हके ।

स्वार्थी , लुच्चा, कमीना , जब से बईन गेलयं नेता ,
देश कर सुरक्षा में भी समझौता , ई स्वार्थ कर बात हके ।।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

नागपुरी कविता - तनी अपन कहलो राउरे कर तनी तनी उनकर कहलों । - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता - तनी अपन कहलो राउरे कर तनी तनी उनकर कहलों ।
अशोक "प्रवृद्ध"

तनी अपन कहलो राउरे कर तनी तनी उनकर कहलों ।
लेकिन  इक्र ले यातना का - का नी  सहलों।।
भटकलों कहाँ-कहाँ अमन-चैन ले ।
लथोलथ थाइक के मगर घर कर वोहे राह गहलों।।
दस्तक देलों कोनो दूरा में सुनसान राइत में ।
सुनगुन नीयर आदमी कर हुवां कोनो नखे ।।
कुछ सपना देख्लों राईत में कि दिन भईर बकबक ।
बस मोर सफ़र कर येहे सौग़ात हके ।।
तोईड़ हैं अबो (अब भी) देवता पत्थर क्र केऊ ।
आदमी मन कहबयं — भागेक ना पावोक , येहे हके ।।
खोजा ना इकर में संगी - साथी मन बाज़ार कर हँसी।
गावेला इकर में दर्द है , ई शायर कर बात हके ।।
तोयं लाख छुपाव तोर सरपरस्ती आवाज़ में मगर
झुलसल गाँव - बस्ती कहथे — ई तो ओहे हके ।।
अँगना में सियासत कर हँसी बनते रहथे मीत ।
लोर से लाज कर मारे ऊ घरी - घरी ढईहहे ।।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

नागपुरी कविता - आसमान में है भगवान परवरदिगार , हमरे सब पर है ऊकर नज़र - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता -
आसमान में है भगवान परवरदिगार , हमरे सब पर है ऊकर नज़र
अशोक "प्रवृद्ध"

जे आऊर मनके देवेना उपदेश , आपने कर शकल देईख लेवों तनी ।
धर्म कर नाव (नाम) में  फैलायनां , सग्रे धर्मान्धता कर जहर ।।

आसमान में है भगवान परवरदिगार , हमरे सब पर है ऊकर नज़र,
छुईप सकेला नहीं पाप-कर्म, छुईप सकेला हत्या अगर ।।

दुष्कर्म, काला-बाज़ार, हत्या, धोखा-धड़ी आऊर देशद्रोह,
कब-कईसन मिल जाई सज़ा, हमरे के  होवी नी खबर ।।

उक्र लाठी में आवाज नखे , समय पर चोट करेला ,
सहायेला नहीं सुई कर चुभल , कैसे झेलब ऊकर कहर ।।

नागपुरी कविता -कथनी - करनी एक होवोक , पाखण्ड नी (ना) लागे । - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता -कथनी - करनी एक होवोक , पाखण्ड नी (ना) लागे ।
अशोक "प्रवृद्ध"

ज़ालिम दारु पीयेक दे, रजाई में बैईठ के ,
चाहे ऊ ठाँव (जगह) बताय दे, जहाँ ठण्ड नी (ना) लागे ।।

रेल में पीते पकड़ाय गेलों ,  तो भरलों जुर्माना,
खोजथों ऊ सवारी, जहाँ दण्ड नी लागे ।।

पूँजी निवेश सही जगह, करेक चाही ,
सहियाओं (मित्रों) ! चिट फंड, चीटिंग फण्ड नी (ना) लागे ।।

सत्ता पायके सुख तजयं , कहाँ मानुष अईसन ,
'विनम्रता' वईससन होवेक चाही , जे घमण्ड नी (ना) लागे ।।

सही पात्र के वोट देवेक, है जरूरी बात बहुत,
देखब ! कहीं दिल्ली, झारखण्ड नी (ना) लगे ।।

बईन बैठहयं महंत जब, झाडे़ लाइगहयं उपदेश,
कथनी -;करनी एक होवोक , पाखण्ड नी (ना) लागे ।।