नागपुरी कविता - तनी अपन कहलो राउरे कर तनी तनी उनकर कहलों ।
अशोक "प्रवृद्ध"
तनी अपन कहलो राउरे कर तनी तनी उनकर कहलों ।
लेकिन इक्र ले यातना का - का नी सहलों।।
भटकलों कहाँ-कहाँ अमन-चैन ले ।
लथोलथ थाइक के मगर घर कर वोहे राह गहलों।।
दस्तक देलों कोनो दूरा में सुनसान राइत में ।
सुनगुन नीयर आदमी कर हुवां कोनो नखे ।।
कुछ सपना देख्लों राईत में कि दिन भईर बकबक ।
बस मोर सफ़र कर येहे सौग़ात हके ।।
तोईड़ हैं अबो (अब भी) देवता पत्थर क्र केऊ ।
आदमी मन कहबयं — भागेक ना पावोक , येहे हके ।।
खोजा ना इकर में संगी - साथी मन बाज़ार कर हँसी।
गावेला इकर में दर्द है , ई शायर कर बात हके ।।
तोयं लाख छुपाव तोर सरपरस्ती आवाज़ में मगर
झुलसल गाँव - बस्ती कहथे — ई तो ओहे हके ।।
अँगना में सियासत कर हँसी बनते रहथे मीत ।
लोर से लाज कर मारे ऊ घरी - घरी ढईहहे ।।
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