रविवार, 2 मार्च 2014

नागपुरी कविता - आये गेलक मास फागुन कवि - अशोक " प्रवृद्ध "



गाँव की गोरी, जिसका पति परदेश में है, वह फागुन के महीने में कैसे तड़पती है, उसी का चित्रण इस नागपुरी (नगपुरिया) कविता (गीत) में किया गया है -
नागपुरी कविता -आये गेलक मास फागुन
 कवि - अशोक " प्रवृद्ध "
 
घड़ी घड़ी सिहरे मोर बदन, आये गेलक मास फागुन  !
भोरे भोरे कूहके कोयल, कुहुक करे जियरा के  घायल.
पी पी कईरके पपीहा पुकारे, पिया परदेशी जल्दी आरे!
कईस के धर मोर बदन, आये गेलक मास  फागुन !
सरसों कर खेत में गेलो, शरम से मोये भी पियर होय गेलो!
तीसी कर फल मोती लागे, साग चना कर   प्रवृद्ध लागे.
आम कर मंजर अशोक से भरल बागान, आये गेलक मास फागुन !!
ननद मोरे पे ताना मारे, साईस जी भी नजईर से तारे.
टोला पड़ोस से नजर बचायके, देवर मन  भी मोरे पे ताके.
अब नी सोहायेला  कोई गहना आये गेलक  मास फागुन !
चिट्ठीयो पतरी नी तोय भेजले, फोनो करेक तोय बंद  कईर देले.
पनघट पर सखी बतिआयेल , ऊकर पिया कर संदेशा आयेल.
 तोय नी भेजले एको गो संदेशआये गेलक  मास. फागुन !
घड़ी घड़ी सिहरे मोर बदनआये गेलक  मास फागुन ! !

रचनाकार -  अशोक " प्रवृद्ध " 

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