शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

नागपुरी कविता - दुश्मनी में तो उकर आईज भी कोनो अंतर नीं आलक - अशोक "प्रवृद्ध"

नागपुरी कविता -
दुश्मनी में तो उकर आईज भी कोनो अंतर नीं आलक
          अशोक "प्रवृद्ध"

दुश्मनी में तो उकर आईज भी कोनो अंतर नीं आलक ,
ताज्जुब है बहुत दिन से एने कोनो पत्थर नी आलक।

उके दुई मील पैदल छोडेक जात रहों मोयं बस तक,
मोंयं उकर घर गेलों तो ऊ गेट तक बाहरे नी आलक ।.

जहाँ भी देखू बैठल हैं लाइन तोडे़क वाला ,
मोंयं लाइन में लागल राहों से ले नम्बर नी आलक।

चईढ़ हों देईख के हर एक सीढ़ी सावधानी से,
जहाँ पर आईज हों मोंयं ऊ जगन उईड़ के नी आलों।

ज़माना कर हवा कर असर ऐतना जेयादा है,
कि कोनोंत्योहर में बेटा पलईट के घर नी आलक।

केखो मश्वरा का देवं कि ईसन जी कि उसन जी,
मोर ख़ुद कर समझ में जब ई जीवन भर नी आलक ।

रचनाकार - अशोक "प्रवृद्ध"

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